महाराष्ट्र में कई इलाक़ों में कृषि संकट ने मानसिक स्वास्थ्य संकट को बढ़ाया है. इसकी वजह से बच्चों में अल्टरुइस्टिक आत्महत्या दर बढ़ गयी है. भारत में किसानों की आत्महत्या दिन पर दिन गहराते कृषि संकट का विकट उदाहरण है. लागत मूल्य में वृद्धि, क़ीमतों का झटका, घर के ख़र्चे साथ साथ ऋण की भारी कमी, ग्रामीण मज़दूरी और कृषि निवेश में गिरावट ने किसानों की ज़िंदगी पर एक चुप्पी पसार दी है. अल्टरुइस्टिक आत्महत्या वो है जिसमें व्यक्ति अपने जीवन का त्याग दूसरे की भलाई के लिए कर देता है.
खबर में ख़ास
- किसानों की बढ़ती आत्महत्या दर और बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य
- सरकारी नीतियाँ और एन जी ओ मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम
- निष्कर्ष
2019 में भारत में 1,39,123 आत्महत्या रिकॉर्ड की गयीं जिसमें 7.4% व्यक्ति खेती से जुड़े थे. दिवालिया होने या क़र्ज़ के बोझ की वजह से (38.7%), खेती सम्बंधित मामलों की वजह से (19.5%) यानि 60% आत्महत्या के पीछे ये वजह थीं. हालाँकि ये आँकडें असलियत से काफ़ी दूर हैं. इसका कारण सामाजिक लांछन के डर से असूचित केस और NCRB के डेटा एकत्र करने के तरीक़े में बदलाव जो कृषि मजदूरो और किसानों को अलग श्रेणी में अवर्गीकृत करता है.
2019 में भारत में हुई कुल आत्महत्याओं में महाराष्ट्र, जो भारत के सम्पन्न राज्यों में से हैं, 13.6% हुईं जो पूरे देश में सबसे ज़्यादा है. पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र के केंद्रीय और पूर्वी इलाक़ों, मराठवाडा और विदर्भ में आत्महत्या दर में ख़ासी वृद्धि हुई है. सबसे ज़्यादा आत्महत्या के मामले, कैश फ़सल.
उगाने वाले किसान ख़ासकर कपास किसानों की देखने को मिली है. इन मौतों का कारण कपास की फ़सल के लिए पेस्ट मेनेजमेंट, बीज और खाद की ज़रूरत की वजह से खेती की लागत में वृद्धि होना है. औसतन एक रुपए की लागत पर किसान को 20-45 पैसे मिलते हैं.
गिरती कमाई और बढ़ते ख़र्चों की वजह से क़र्ज़ का बोझ बढ़ता ही जा रहा है. महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में हुई एक स्टडी के अनुसार 55% किसानों जिन पर सर्वे हुआ, उन्हें एंज़ाइटी की शिकायत थी और 24.7% इनसोमेनिया का शिकार थे. किसानों की आत्महत्या के पीछे उनका ख़राब मानसिक स्वास्थ्य एक प्रमुख कारण है जो एक दूसरी दुर्घटना यानि किसानों के बच्चों के बीच ऑल्टरुइस्टिक आत्महत्या को भी बढ़ावा देता है.
किसानों की बढ़ती आत्महत्या दर और बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य
अल्टरुइस्टिक आत्महत्या अध्ययन के मुताबिक़ घर की आमदनी बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है. ग़रीब घरों के बच्चों में डिप्रेशन और असामाजिक व्यवहार ज़्यादा देखने को मिलता है. महाराष्ट्र के कपास बेल्ट में जिन परिवारों ने अपना प्राथमिक कमाने वाला सदस्य खो दिया है वो पैसों की तंगी और क़र्ज़ के बोझ के भीषण संकट को झेलते हैं. घर के सदस्य को खोने की तकलीफ़, परिवार पर चुकाए जाने वाले क़र्ज़ का बोझ और अचानक घर चलाने की ज़िम्मेदारी, बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती है.
अपने अभिभावक ख़ासकर पिता को खोने के बाद बच्चे अपने सामान्य जीवन की तरफ़ लौटने में मुश्किल महसूस करते हैं. कई ख़बरों के मुताबिक़ ऐसे बच्चे ख़ामोश हो जाते हैं, कम खाते हैं, असामान्य तरीक़े से ज़्यादा सोते हैं, उस दुर्घटना की यादों से संघर्ष करते हैं. उन्हें स्कूल लौटने के लिए कोई उत्साह नहीं रहता, ध्यान हट जाता है और हमेशा सरदर्द और बुखार की शिकायत रहती है. कुछ को तनाव सम्बंधी परेशानी भी हो जाती है. ये मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियाँ यूँ हीं उपेक्षित रहती हैं और बच्चों को वो देखरेख नहीं मिलती जिसकी उनको ज़रूरत है.
बच्चों को अपने ख़राब मानसिक स्वास्थ्य के बीच ज़बरन अपने माँ बाप की जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं. कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ घर के बड़े बेटे को कई ज़िम्मेदारियों का निर्वाहन करना होता है. जैसे क़र्ज़ चुकाना, छोटे भाई बहनों की पढ़ाई का ख़र्चा और छोटी बहन की शादी करवाना भी. ऐसी परिस्थिति में ये बच्चे स्कूल छोड़ खेतों में पैसे कमाने के लिए काम करते हैं और अपनी माँ की मदद करते हैं. माँ घर का ख़र्च चलाने के लिए खेती के उन उत्तरदायित्वों को निभाती है जिसे पिता निभाते थे. बच्चा या बाल किसान मराठवाड़ा और विदर्भ में आम बात है.
भाइयों की तरह बहनें भी पढ़ाई छोड़, घर के कामों में मदद करती हैं और कुछ कमाने की भी कोशिश करती हैं, लेकिन लड़कियों को सामाजिक और आर्थिक तौर पर बोझ समझा जाता है जिसे उनकी शादी करके हीं उबरा जा सकता है. इस सोच की वजह से गाँव में बाल विवाह की घटनाएँ बढ़ रही हैं जो कम उम्र दुल्हन के मानसिक स्वास्थ्य को और भी नुक़सान पहुँचाता है.
कुछ घरों में लड़कियों की शादी और उसके चलते आर्थिक बोझ का दबाव इतना ज़्यादा होता है कि पिता अपनी इज़्ज़त बचाने और अविवाहित बेटी का बाप होने के कलंक से बचने के लिए अपनी जान ले लेते हैं. ना उनके पास ख़र्च के लिए पैसा होता है ना दहेज देने का सामर्थ्य. पिछले दो सालों में इन मुश्किल परिस्थितियों और मजबूरी की वजह से बाल आत्महत्या के केसों में बढ़ोतरी हुई है.
ग़रीब घरों के बच्चे, माँ बाप को ज़िल्लत और दुर्भाग्य से बचाने के लिए अपनी जान ले लेते हैं. महाराष्ट्र के आसरा गाँव में एक 19 साल की लड़की ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि अपने पिता का बोझ कम करने के लिए वो अपनी जान ले रही है. उसके परिवार में खाने पर भी आफ़त थी ऐसे में इस डर से कि कहीं उसके पिता आत्महत्या ना कर लें इसलिए उसने ख़ुद अपनी जान ले ली. उसी तरह दाधम के एक 15 साल के लड़के एक कीटनाशक खाकर अपनी जान ले ली क्योंकि वो बहुत ग़रीब परिवार से था.
गाँवों में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में ना के बराबर जानकारी है. इसलिए बच्चों को ट्रॉमा से निपटने के लिए समुचित देखभाल नहीं मिल पाती. ऐसे तकलीफ़देह अनुभवों की वजह से बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर लम्बे समय में गम्भीर असर देखने को मिलते हैं.
सरकारी नीतियाँ और NGO मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम
महाराष्ट्र सरकार ने 2015 में प्रेरणा प्रकल्प किसान काउन्सलिंग स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम की शुरुआत की. ज़िला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (DMPH) और महाराष्ट्र सरकार दोनों मिलकर वैसे किसानों को पहचानने की कोशिश करते हैं जिनमें मानसिक अस्वस्थता के लक्षण दिखाई देते हैं. उनकी पहचान कर जल्द हीं उनका इलाज शुरू किया जाता है. प्रेरणा प्रकल्प कार्यक्रम 36 में से 14 जिलों को कवर करता है और DMPH का विस्तार 34 जिलों में है.
लेकिन क्रियान्वयन में कई कमियाँ रह गयी हैं. ख़बरों के मुताबिक़ कहीं स्वास्थ्य कर्मचारियों की कमी है तो कहीं कुछ जिलों में दवाइयों की, उपचार केंद्रों की दूरी ज़्यादा है और आशा कर्मचारियों को पर्याप्त तनख़्वाह भी नहीं मिलती और उन पर काम का बोझ इतना ज़्यादा है कि गाँव में सबके मानसिक स्वास्थ्य की निगरानी भी वो नहीं कर सकते.
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के अंतर्गत DMPH स्कूल और कॉलेज इंटरवेनशन कार्यक्रम आयोजित कर प्रशिक्षित अध्यापकों, कॉउंसलर और एन जी ओ के द्वारा, जीवन कौशल शिक्षा और साईकोलोजिकल कॉउंसिलिंग उपलब्ध करवाते हैं. 2019 के अप्रैल और अगस्त के बीच स्कूली बच्चों के लिए सेशन कराए गए जहाँ 298 बच्चों की कॉउंसिलिंग की गयी.
महाराष्ट्र में कई एन जी ओ ने सफल मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम संचालित किए हैं. संगत और प्रकृति ने 2014 और 2015 में 18 महीनों के लिए विदर्भ स्ट्रेस्स और हेल्थ प्रोग्राम ( VISHRAM) चलाया. 2017 की लेनसेट स्टडी के मुताबिक़ इस अवधि में डिप्रेशन रेट 14.69 से घटकर 11.3% हो गया और सुसाइडल विचार 5.2 से घटकर 2.5% हो गया, लेकिन ये कार्यक्रम बाल मनोविज्ञान के लिए विशिष्ट नहीं हैं.
निष्कर्ष
महाराष्ट्र जैसे बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य संकट से जूझ रहे राज्य को अकेले हीं नहीं देखा जाना चाहिए. ये कई सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों जो तत्कालिक कृषि संकट के केंद्र में हैं उसके परिणामस्वरूप पैदा हुए हैं. हाल में ग्रामीण मज़दूरी में स्थिरता, इनफलेशन और महामारी ने किसान संकट को और विकराल कर दिया है.
मानसिक स्वास्थ्य नीतियों को अन्य कार्यक्रमों से जोड़ना चाहिए जिनका उद्देश्य किसान की कमाई में वृद्धि, खाद्य उपलब्धता, आसान ऋण, मौसम पर कृषि निर्भरता में कमी, जेंडर नोरम को चुनौती, स्कूल में एनरोलमेंट को सुधारना, अकेडमिक परफ़ोरमेंस में सुधार और कई बातें शामिल हों. इससे ना सिर्फ़ बाल अधिकारों की सुरक्षा में मदद मिलेगी और किसान आत्महत्या समाप्त होगी बल्कि आनेवाली पीढ़ियों को भी मानसिक स्वास्थ्य पेनडेमिंक से बचाया जा सकेगा.